अगल-बगल बंद केबिनों में दूर दोस्ती तलाशते लोग प्रति घंटे मात्र १० रुपये पर व्यस्त थे. नजदीकियों से नजदीकियां बढ़ाना महंगा बहुत हो गया है शायद. #श्रीश पाठक प्रखर
bahut sahi kaha aapne shreesh ji,aapki baat se sahamat hun.lekhan to kai baras se kar raha hun ddordarshan par bhi radio par bhi kayee rachnayen likhin par blog par naya hun aapko pad kar achha laga,mere blog par bhi sawagat www.rangdeergha.blogspot.com padiye aur apna mat zaroor bataiye...vivek
ब्लाइंड्स एंड द
एलीफैंट ! आजकी पोस्ट यकीनन लम्बी
होगी. जानता हूँ बेहद कम लोग
पढ़ेंगे, पर मैं मजबूर हूँ. जितना मैं देख पा रहा हूँ अपनी सीमाओं में, कह सकता हूँ
कि चीजें एक दुसरे से इतनी गुथी-मुथी हुई हैं कि उन्हें एक साथ ही देखना होगा,
वरना हमारा हाल भी बचपन में पढ़ी कहानी की तरह हाथी और छः अंधों वाला ही होगा. बचपन में पढ़ी ढेरों
कहानियाँ अपना मतलब और गूढ़ार्थ जीवन भर खोलते रहते हैं. सहज, इतना भी सहज नहीं
होता पर होता है सहज ही. हम कभी समस्या को हाथी की पूँछ की तरह समझते हैं तो कभी
पेट की तरह तो कभी सूंड की तरह. हम अलग-अलग भी गलत नहीं हैं पर यह समझ लेना चाहिए
कि अलग-अलग हम उन अंधों की तरह ही हैं जो यह कभी समझ नहीं पाए कि समूचा हाथी कैसा
होता है. वह कहानी बहुत सूक्ष्म है. वे अंधे इसलिए हैं क्यूंकि वे अपना अपना अलग
अनुभव साझा कर संवाद तक पहुँचने का प्रयत्न नहीं कर रहे. उनमें जिद है अपने अनुभव
को ही अंतिम मानने की. यह जिद इसलिए है क्यूंकि वे पृथक-पृथक केवल स्वयं को
महत्त्व दे रहे. अतिरेकता में स्वयं को ही अधिक महत्त्व इसलिए क्यूंकि जाने-अनजाने
वे अपनी असुरक्षा से ग्रस्त हैं कि वे पूर्ण नहीं है…
कड़क
सी सर्दी, रजाई में उनींदे से लोग सपनों
की खुमारी में आँखें लबालब जब
जो जैसा चाहते बुनते रचते, समानांतर सपनों की दुनिया, पर बार-बार
टूट जाते वे सपने। खुल
जाती डोरी नींद की कच्ची, बरबस मुनमुनाते गाली उन
आवारा कुत्तों पर, जो भौंक पड़ते गाहे-बगाहे।
क्यों
नहीं सो जाते कहीं ये कुत्ते भी मजे
लेते मांस के सपनों की, या फिर खेलते खेल ,खो सुधबुध गरमाहट
छानते पीढ़ी-दर-पीढ़ी। कुछ
लोग होते ही हैं, तनी भवें वाले होती
है उन्हें चौंकने की आदत गुर्राते
हैं सवाल लेकर, मिले ना मिले जवाब दौड़ते
हैं, भूंकते हैं, पीछा करते हैं, लिखते हैं...! जिन्दगी
की रेशमी चिकनाइयों से परहेज नहीं पर
बिछना नहीं आता, कमबख्तों को। चैन
नहीं आता उन्हें, पेट भरे हों या हो गुड़गुड़ी। शायद
शगल हो पॉलिटिक्स का, सूंघते
हैं पॉलिटिक्स हर जगह, करते हैं पॉलिटिक्स वे शक करते रहते हैं, हक की बात करते रहते हैं। लूजर्स,
एक दिन कुत्ते की मौत मर जाते हैं....ये,
ऐसे क्यों होते हैं....? चीयर्स....!
देश आगे बढ़ तो रहा है। ये
नहीं बदलना चाहते, भुक्खड़। मेमसाहब
का कुत्ता कितना समझदार है, स्पोर्टी...! हौले
से गोद में बैठ कुनमुनाता है। उस
क्यूट के अंदाज पे म…
कि; कि; वे दोनों एक-एक जगह के रईस हैं..! कि; उन दोनों की पहुँच बाकी की पहुँच से बाहर है..! कि; वे दोनों एक दूसरे को अपनी बता देना चाहते हैं..! कि; दोनों सामने वाले को अपने सामने कुछ नहीं समझते हैं..! बाकी; उन दोनों को खूब जानते हैं..! कि; पीकर दोनों रोज शाम को झगड़ा करते हैं..!!!
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